गुप्त वंश के दूसरे सम्राट समुद्रगुप्त (लगभग 335–375 ई.) को भारतीय इतिहास के महान शासकों में गिना जाता है। उन्हें ‘भारत का नेपोलियन’ कहा जाता है। वे चन्द्रगुप्त प्रथम और लिच्छवी राजकुमारी कुमारदेवी के पुत्र थे। समुद्रगुप्त अपने पिता द्वारा स्थापित सीमित साम्राज्य को उत्तरी भारत से लेकर असम तक फैला चुके थे। समुद्रगुप्त गुप्त युग के महान सम्राटों और प्राचीन भारत के कुशल विजेताओं में से एक माने जाते हैं। उनके कुशल नेतृत्व, प्रशासनिक दक्षता और संस्कृति-संरक्षण ने गुप्त युग को स्वर्णिम काल प्रदान किया।
प्रारंभिक जीवन और परिवार
समुद्रगुप्त गुप्त वंश में जन्मे थे, जिसकी स्थापना श्री गुप्त ने की थी। उनके दादा घटोत्कच और पिता चन्द्रगुप्त प्रथम थे। चन्द्रगुप्त प्रथम ने अपनी अन्य संतान को त्यागकर समुद्रगुप्त की क्षमताओं को देखकर उन्हें उत्तराधिकारी नियुक्त किया। समुद्रगुप्त संस्कृत के निपुण कवि और वीणा-वादक थे। उन्होंने संभवतः पाटलिपुत्र में शिक्षा ग्रहण की और वैदिक परम्पराओं में प्रशिक्षण प्राप्त किया।
सैन्य अभियान
समुद्रगुप्त के राज्यकाल में गुप्त साम्राज्य का विस्तार विशेष रूप से उनके सफल सैन्य अभियानों के कारण हुआ। उनके अभियान निम्न प्रकार थे:
- उत्तर भारत: आर्यावर्त के राजाओं (जैसे अच्युत, नागसेन, गणपतिनाग आदि) को हराकर इस क्षेत्र के कई राज्यों को अपने साम्राज्य में मिला लिया।
- पूर्वोत्तर सीमा: सामतट (बंगाल), देवका (उत्तरी असम), कामरूप (असम) और नेपाल के राजाओं ने समुद्रगुप्त को अपना अधीन मान लिया।
- गणतंत्रिक राज्यों का अधीनकरण: मलव, अर्हुणायन, यादव, मध्यस्थ, अभिर, प्ररजुन, सनकानिक, काका, खरपारिका जैसे गणतंत्रों ने भी समुद्रगुप्त को अपना प्रभु स्वीकार किया।
- दक्षिण भारत: दक्षिण की ओर अग्रसर होकर उन्होंने पल्लव राजा विश्णुगोपा को परास्त किया और कांचीपुरम तक अपना प्रभुत्व स्थापित किया।
इन अभियानों में समुद्रगुप्त ने असंख्य राजाओं को पराजित कर उन्हें साम्राज्य में सम्मिलित किया। विजयी सम्राट अपने पराजित प्रतिद्वंद्वियों को दंडित नहीं करता था, बल्कि उन्हें मित्रवत रखता था और शर्त के साथ स्वतंत्र शासन की आज्ञा देता था कि वे गुप्त सम्राट को अपनी सर्वोच्च सत्ता मानेंगे। दक्षिण विजय यात्रा के दौरान कई उत्तर भारतीय शासक स्वतंत्रता की घोषणा कर चुके थे, पर समुद्रगुप्त दक्षिण से लौटकर उनका भी दमन कर दिया।
समुद्रगुप्त की विजय की रणनीति कुशल थी। उन्होंने सीमावर्ती राज्यों को सीधे अपना राज्य बना लिया, जबकि दूरदराज राज्यों को केवल अधीन माना और वहां की सत्ता स्थानीय शासकों को सौंप दी। उनके अभियानों में व्यक्तिगत साहस की भी बड़ी भूमिका थी; ऐतिहासिक अभिलेख बताते हैं कि उन्होंने लगभग सौ युद्ध स्वयं मोर्चे पर लड़कर जीत हासिल की।
प्रशासन और शासन
समुद्रगुप्त का प्रशासन भी उतना ही प्रभावशाली था जितना उनका सैन्य अभियान। उन्होंने सुव्यवस्थित प्रशासनिक व्यवस्था की नींव रखी, जिससे साम्राज्य में शांति और समृद्धि बनी रही। गुप्त साम्राज्य की सत्ता पाटलिपुत्र में केंद्रित थी, जहां सम्राट के विश्वासपात्र मंत्री और राज्यपाल विभिन्न प्रांतों की देखभाल करते थे। दूर के राज्यों को सीधे नहीं चलाया गया; उन्होंने स्वशासन या उपाधीनता की स्थिति बनाए रखने की नीति अपनाई, जिसमें स्थानीय शासक अपना शासन स्वयं चलाते रहे, किंतु गुप्त सम्राट की सर्वोच्चता स्वीकार करते थे। इस लचीले प्रशासनिक ढांचे ने विशाल साम्राज्य को सफलतापूर्वक संचालित करने में मदद की।
धार्मिक नीतियाँ
धार्मिक दृष्टि से समुद्रगुप्त ने वैदिक परंपराओं को प्रोत्साहित किया। उन्होंने अश्वमेध यज्ञ कर ‘महाराजाधिराज’ की उपाधि ग्रहण की और स्वयं को सर्वोपरि राजा घोषित किया। अश्वमेध यज्ञ से ब्राह्मणों का सामाजिक वर्चस्व भी और दृढ़ हुआ। फिर भी समुद्रगुप्त धर्मनिरपेक्षता के पक्षधर थे; उन्होंने श्रीलंकाई राजा को बोधगया में बौद्ध विहार स्थापित करने की अनुमति दी, जिससे विभिन्न समुदायों में सहिष्णुता बनी रही।
कला और संस्कृति
समुद्रगुप्त को कला-संस्कृति का भी महान संरक्षक माना जाता है। वे स्वयं संगीत-वेद्य वीणा के कुशल वादक और संस्कृत के सिद्ध कवि थे। उनके दरबार में कवि हरिसेना, कौटिल्य आदि विद्वान थे, जिन्होंने गुप्त युग का साहित्यिक गौरव बढ़ाया। सम्राट समुद्रगुप्त के स्वर्ण सिक्कों पर उन्हें वीर योद्धा और शांत विद्वान के दोनों रूपों में दिखाया गया है। इन सिक्कों पर उकेरा अभिलेख ‘समरशत-वितता विजयः…’ (अर्थ: ‘सैंकड़ों युद्धों में विजयी, आकाश को भी जीतने वाला’) उनकी व्यापक विजय यात्रा का प्रमाण है।
प्रमुख अभिलेख
समुद्रगुप्त काल का सबसे महत्वपूर्ण ऐतिहासिक स्रोत प्रयाग (इलाहाबाद) का स्तंभ लेख है, जिसे उनके राजदरबार के कवि हरिसेना ने संस्कृत में लिखा था। इसे ‘गुप्त युग का सबसे महत्वपूर्ण ऐतिहासिक दस्तावेज’ माना जाता है। यह स्तंभ लेख समुद्रगुप्त की विजय यात्राओं, प्रशासनिक नीतियों और दक्षिण अभियानों का विस्तारपूर्वक वर्णन करता है। इसके अलावा उनके शासनकाल के स्वर्ण सिक्के और स्थानीय अभिलेख उनके जीवन-चरित्र और उपलब्धियों का साक्ष्य हैं।
उत्तराधिकारी और विरासत
समुद्रगुप्त के बाद उनके पुत्र चन्द्रगुप्त द्वितीय (विक्रमादित्य) ने सिंहासन संभाला और उनके विस्तारवादी अभियान को जारी रखा। चन्द्रगुप्त द्वितीय के समय गुप्त साम्राज्य ने चरम विकास देखा। इसके बाद कुमारगुप्त प्रथम, स्कन्दगुप्त सहित बाद के गुप्त शासकों ने साम्राज्य का प्रबंधन किया। बाद में पुरुगुप्त, नरसिंहगुप्त बलादित्य, कुमारगुप्त द्वितीय, बुद्धगुप्त और विष्णुगुप्त जैसे शासकों ने भी गुप्त साम्राज्य की विरासत को आगे बढ़ाया। समुद्रगुप्त के शासन ने गुप्त युग के स्वर्णिम काल की नींव रखी, जिस पर उनके उत्तराधिकारी चन्द्रगुप्त द्वितीय ने और समृद्धि प्राप्त की।